”चमकौर साहिब” – सिख इतिहास


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”चमकौर साहिब” सिख इतिहास की शौर्य गाथा का साक्षी

सिख पंथ दुनिया का एक ऐसा समुदाय है। जो सदैव अपने उदार रवैये के लिए जाना जाता है। जिनके धार्मिक स्थल गुरूद्वारों में बिना किसी रोक-टोक, भेद-भाव के सभी धर्म, समुदाय के लोगों का स्वागत खुले दिल से किया जाता है। सिख समुदाय के प्रथम गुरू नानक देव जी महाराज ने पूरी दुनिया को (वांड छकने) यानि भोजन को आपस में बांट कर खाने (लंगर) की परंपरा सिखार्इ ताकि मानव समाज के बीच खड़ी धर्म-जाति और आपसी भेद-भाव की दीवार को ढाहाया जा सकें। इस समुदाय को एक ऐसे समाज के रूप में भी जाना जाता है जिसने धर्म की रक्षा हेतू अनगिनत बलिदान दिए और वक्त आने पर अपने देश के दुश्मनों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। रेलयात्री डाटइन पर पढि़ए सिखों के दसवें गुरू श्री गुरू गोविद सिंह जी महाराज के 349वें प्रकाश दिवस पर सिख इतिहास की एक यादगार वीरगाथा के बारें में। जब 40 सिख सूरमाओं ने गुरू की अगुवार्इ में 10 लाख मुगल सैनिकों के दांत खटटे कर दिए, जब मुगल सम्राट औरंगजेब ने गुरू गोविद सिंह जी के समक्ष घुटने टेक दिए, जब भारत में बाबर के बसाए मुगल साम्राज्य की जडे़ हिदुस्तान से उखड़ गर्इ।
पूरे हिदुस्तान में स्वयं का राज स्थापित करने के मुगल सम्राट औरंगजेब के सपने को तब बड़ा झटका लगा जब, सिखों के दसवें गुरू गुरू गोविद सिंह जी महाराज ने उसकी अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया और सिखों के साथ-साथ हिन्दु धर्म की रक्षा के लिए एक अभेद दीवार बन कर खडे़ हो गए। इससे गुस्साएं औरंगजेब ने सरहिंद के नवाब वज़ीर खान की अगुवार्इ में अन्य मुगल राजाओं की लम्बी चौड़ी फौज जिसमें कुल सैनिकों की संख्या 10 लाख थी। गुरू गोविद सिंह जी महाराज को जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए आनंदपुर साहिब (पंजाब) भेज दी। वज़ीर खान की अगुवार्इ में आयी फौज ने 6 महीनें तक आनंदपुर साहिब (पंजाब) की सरहदों को घेरे रखा। मगर अंदर जाने की हिम्मत नही कर पाये साथ ही उनका मानना था कि जैसे ही नगर के अंदर राशन-पानी समाप्त हो जाएगा गुरू जी स्वयं आकर सर्मपण कर देंगे। मगर ऐसा सोचना मुगलों की नासमझी साबित हुर्इ 5-6 दिसंबर 1704 रात गुरू जी अपने सैनिकों के साथ चुपचाप आंनदपुर से कूच कर गये। हालाँकि जल्द ही मुगलों को इस बात का पता चल गया और वो गुरू जी का पीछा करने लगे।
अपने चंद साथियों के साथ जब गुरूजी सारस नदी पार करने ही वाले थे की तभी उनका सामना मुगलों की लम्बी चौड़ी फौज से हो गया। उधर तेज बारिश के कारण सारस नदी भी अपने पूरे उफान पर थी। ऐसे में गुरूजी की फौज परेशान जरूर हुर्इ मगर डरी नहीं। गुरूजी ने आदेश दिया जो कोर्इ भी इस उफनाती नदी को पार कर दूसरी ओर जा सकता है चला जाए बाकि सैनिक यही रूक कर मुगल सैनिको से युद्ध करें। आदेश सुन कर्इ सिख सैनिक नदी पार करने का प्रयास करने लगे मगर इस दौरान कर्इ सैनिक नदी के वेग को सहन नहीं कर पाए और तेज धार की चपेट में आ गए। वही कर्इ सिख योद्धाओं ने मुगलों से युद्ध करना सहीं समझा। नदी पार करने के बाद गुरूजी के पास अपने दो बड़े साहिबजादे भार्इ अजीत सिंह जी और भार्इ जुझार सिंह जी के अलावा 40 सिख सूरमां ही बचे थे। वहीं दुसरी तरफ थी उनकी जान की प्यासी 10 लाख मुगलों की विशाल फौज।
अपने साथियों के साथ आगे बढ़ते हुए गुरूजी पंजाब के रूपनगर में सिथत सरहिंद नहर के बसे चमकौर नामक स्थान पहुंचे। जहां स्थानीय लोगों ने उनका जमकर स्वागत किया। साथ ही एक स्थानीय निवासी स्वामी बुद्चंद ने अपनी कच्ची गढ़ी (किलानुमा हवेली) गुरूजी का ठहरने के लिए दे दी। गुरूजी को हवेली सामरिक दृषिट से बहुत उपयोगी लगी उन्होंने वही अपने साथी सैनिकों के साथ रूकने का निर्णय किया। जल्द ही गुरूजी ने सभी 40 सैनिकों को बचे हुए अस्ले के साथ छोटे-छोटे दल में बांट दिया।
सिख सूरमा इस बात से अच्छी तरह परिचित थे कि अब उनका बच पाना नामुमकिन है। मगर इससे भयभीत होने की बजाए सिख योद्धा दुश्मन का इंतजार करने लगे। सारस नदी का जलस्तर कम होते ही मुगलों के घोड़ो की चाप का शोर से पूरा चमकौर में गूंजने लगा। वजीर खान ने नगर के लोगों से यह जान लिया कि गुरू जी के पास अब मात्र 40 सैनिक ही बचे है। वो गुरू जी को बंदी बनाने का स्वप्न देखने लगा जल्द ही उसने यह ऐलान करवा दिया कि यदि गुरू जी अपने सैनिकों सहित आत्मसर्मपण कर दे तो उनकी जान बक्श दी जाएगी। इसका उतर सिख सूरमाओं ने मुगलों पर तीरों की बौछार कर दिया।
फिर भी वजीर खान को यह भ्रम हो चला था कि जल्द ही गुरू जी हार मान लेंगे वही गुरू जी ने भी एक-एक सिख योद्धा को सवा लाख के साथ लड़ाने की सौगंध खा रखी थी जिसे अब अमल में लाने का वक्त आ चुका था।
22 दिसंबर 1704 काले घने बादलों से घिरे चमकौर में हल्की-हल्की बारिश और ठण्डी हवा के बीच दुनिया का एक मात्र अनोखा युद्ध प्रारंभ हो चुकाँ था सिख सूरमा अपने दिल की गरमी मुगलों पर उढ़ेलने के लिए बैचेन थे एक तरफ जहाँ 10 लाख मुगल सैनिक थे वही दूसरी ओर मात्र 40 सिख यौद्धा गुरूजी और उनके 2 साहिबजादे। गुरूजी ने रणनीती बनाकर पांच-पांच सिख सैनिको का जत्था मुगलों से लड़ने के लिए किले से बाहर भेजना शुरू कर दिया। पहले जत्थे में भार्इ हिम्मत सिंह जी अपने बाकी के चार साथियों के साथ मैदान में उतर गए। गुरूजी स्वयं भी किले की डियोढ़ी (छत) से मुगलों पर तीरों की बौछार करने लगे।
लम्बे समय तक खूब लोहे से लोहा बजा फिर पहला जत्था शहीद हो गया। गुरू जी ने फिर दूसरा जत्था युद्ध के लिए बाहर भेजा देखते ही देखते मुगलों के पैर उखड़ने लगे उनमें अजीब सा डर घर कर गया। हर किसी की समझ से बाहर था कि कैसे मात्र 40 सिख 10 लाख की फौज से लोहा ले सकते है जल्द ही शाम घिर आर्इ गुस्साएं वज़ीर खान ने अपने कर्इ साथी हिदायत खान, फूलान खान, इस्माइल खान, असलम खान, जहान खान, खलील खान, भूरे खान को किले के भीतर चलने को कहाँ आदेश पा कर सारे मुगल कच्ची डियोढ़ी में घुसने की तैयारी करने लगे।
खबर पाकर सिख सैनिकों ने गुरूजी से उनके पुत्रों सहित डियोढ़ी से निकल जाने का आग्रह किया क्योंकि इतना बढ़ा हमला रोक पाना मुश्किल था। इस पर गुरूजी ने कहाँ कि तुम सारे मेरे साहिबजादे ही तो हो मैं तुम्हें छोड कर नहीं जा सकता। इस पर उनके बडे़ साहिबजादे भार्इ अजीत सिंह ने गुरू जी से युद्ध स्थल में जाने की आज्ञा मांगी। सैकडों मुगलों को मौत के घाट उतारने के बाद भार्इ अजीत सिंह भी शहीद हो गए। उसके बाद भार्इ जुझार सिंह ने रण भूमि में मोर्चा संभाला वो भी दुश्मनों के लिए काल साबित हुए बाद में उन्हें भी वीरगति प्राप्त हुर्इ। उस समय बडे़ साहेबजादे अजीत सिंह 18 वर्ष के थे जबकि छोटे साहिबजादे भार्इ जुझार सिंह की उम्र मात्र 14 वर्ष थी। जल्द ही बचे हुए सिख सैनिकों ने गुरू जी से पुन: वह स्थान छोड़ने का अनुरोध किया ताकि गुरूजी वहां से सुरक्षित निकल आगे की रणनिती बना सके। गुरू जी ने उनसे वादा लिया कि वो रणभूमि में अपनी जान लड़ा देंगे मगर हार नहीं मानेंगे। इसके बाद उन्होंने वहां से 2 सैनिको के साथ निकलने का निर्णय लिया। दुश्मन को चकमा देने के लिए गुरूजी ने अपने समान दिखने वाले भार्इ जीवा सिंह को अपना मुकुट और पौशाक पहना कर डियोढ़ी पर चढ़ा दिया। ताकि दुश्मन को उनके वहाँ से निकल जाने का पता ना चले। वहीं उनका मानना था कि अगर वो मुगलों को ललकारेगें नहीं तो उन्हे कायर समझा जाएगा इसके लिए गुरूजी ने एक और रणनिती बनार्इ जिसके अनुसार गुरूजी और उनके साथी सैनिक दोनों अलग-अलग दिशा में जाएंगे और बाद में एक निश्चित स्थान पर मिलेंगे। बरसात रूक चुकी थी आसमान में चारों तरफ तारें छाए हुए थे योजना के अनुसार अंधेरे में गुरू जी ने तीरों की बौछार कर मुगलों की सारी मशाले कीचड में गिरा कर बुझा दी। फिर आवाज लगार्इ (पीरे हिन्द जा रहा है जिसकी हिम्मत हो रोक ले) युद्ध जीतने और र्इनाम की लालच में मुगल सैनिक अंधेरे में उल्टी दिशा में भागे और आपस में भीड़ गए। गुरू जी की योजना कामयाब रही गुरूजी और उनके साथी वहां से निकल गए सुबह जब उजाला हुआ तो ज्यादातर मुगल सैनिक आपस में लड़ कर मर चुके थे। मुगल सेना को भारी निराश हुर्इ लाखों हजारों शवों में बस 35 शव ही सिख सैनिको के थे। वहीं मुगल फौज का लगभग सफाया हो चुका था। गुस्साएं मुगलों ने किले पर धावा बोला वहाँ मौजूद सिख सैनिको ने भी उन्हें करारा जवाब दिया और अन्त में शहादत हासिल की।
मुगलों के लिए ये सबसे बड़ी हार थी कश्मीर, लाहौर, दिल्ली, सरहिंद की सारी मुगल सेना की ताकत और सात महीने से ज्यादा वक्त देने के बावजूद उन्हें मुहँ की खानी पड़ी थी। मुगलों का ख्जाना भी खाली हो चला था। औरंगजेब ने गुरूजी समक्ष घुटने टेक दिए और मुगल शासन का भारत से नाम मिट गया। उस समय औरंगजेब ने गुरू गोविद सिंह जी से पूछा कि कैसे उन्होंने ये सब किया, कैसे 40 सिखों ने 10 लाख मुगल फौजियों को हरा दिया तब गुरू जी ने कहा था कि उनका एक-एक सिख अपने दुश्मन के लिए सवा लाख के बराबर है।
”चिडि़यों से मैं बाज लड़ाऊ गीदड़ को मैं शेर बनाऊ”
”सवा लाख से एक लडाऊ तभी गोविद सिंह नाम कहाउँ”
पंजाब के रूपनगर से 15 किलोमीटर दूर सिथत चमकौर नामक स्थान सिख इतिहास की शौर्य गाथा का जीवंत उदाहरण है। यहाँ के प्रसिद्ध राजा विडिचंद बाग में ऐतिहासिक गुरूद्वारा श्री कतलगढ़ साहिब स्थापित है। जो चमकौर के युद्ध में शहीद हुए सिख सैनिकों को सर्मपित है इसके अलावा यहाँ कर्इ अन्य गुरूद्वारें भी है। रेल से इस स्थान के दर्शन करने के लिए आप को पास के मोरिंदा रेलवे स्टेशन के लिए रेल से सफर करना होगा जो इस गुरूद्वारें से 15 किलोमीटर दूर सिथत है। वहीं रूपनगर रेलवे स्टेशन की देरी यहाँ से 16 किलोमीटर है।
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Author: Vyasji

I am a senior retired engineer in USA with a couple of masters degrees. Born and raised in the Vedic family tradition in Bhaarat. Thanks to the Vedic gurus and Sri Krishna, I am a humble Vedic preacher, and when necessary I serve as a Purohit for Vedic dharma ceremonies.

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