A Poem by Hari Om Pawar


From: Vidya Sagar Garg < >
A Poem by Sri hari Om Pawar ji
मन तो मेरा भी करता है झुमुं-नाचूं गाऊँ मैं 
आज़ादी की स्वर्ण जयंती वाले गीत सुनाऊं मैं
लेकिन सरगम वाला वातावरण कहाँ से लाऊँ मैं
मेघ-मल्हारों वाला अन्तःकरण कहाँ से लाऊँ मैं
मैं दामन में दर्द तुम्हारे अपने लेकर बैठा हूँ 
आज़ादी के टूटे-फूटे सपने लेकर बैठा हूँ
 
घाव जिन्होंने भारत माता को गहरे दे रक्खे हैं
उन लोगों को Z-सुरक्षा के पहरे दे रक्खे हैं 
 
जो भारत को बर्बादी की हद तक लाने वाले हैं 
वे ही स्वर्ण जयंती का पैगाम सुनाने वाले हैं 
आज़ादी लाने वालों का तिरस्कार तडफाता है
बलिदानी पत्थर पर थूका बार-बार तडफाता है
इन्कलाब की बलिवेदी भी जिससे गौरव पाती है
आज़ादी में उस “शेखर” को भी गाली दी जाती है 
 
इससे बढ़ कर और शर्म की बात नहीं हो सकती थी
आज़ादी के परवानो पर घात नहीं हो सकती थी
कोई बलिदानी  “शेखर” को आतंकी कह जाता है
पत्थर पर से नाम हटा कर कुर्सी पर रह जाता है 
 
राज महल के अन्दर ऐरे-गैरे तन कर बैठे हैं
बुद्धिजीवी गांधीजी के बन्दर बन कर बैठे हैं 
इसीलिए मैं अभिनन्दन के गीत नहीं गा सकता हूँ
मैं पीड़ा की चीखों में संगीत नहीं ला सकता हूँ 
 
गाली की भी कोई सीमा है कोई मर्यादा है
ये घटना तो देशद्रोह की परिभाषा से जादा है
मेरी आँखों में पानी है सीने में चिंगारी है 
राजनीति ने कुर्बानी के दिल पर ठोकर मारी है 
 
वोटों के लालच में शायद कोई कहीं नहीं बोला
लेकिन कोई ये न समझे कोई खून नहीं खौला
सुनकर बलिदानी बेटों का धीरज डोल गया होगा
मंगल पाण्डेय फिर शोणित की भाषा बोल गया होगा
सुनकर हिन्द-महासागर की लहरें तड़फ गयीं होंगी
शायद बिश्मिल की ग़ज़लों की बहरें तड़फ गयीं होंगी
 
नील गगन में कोई पूछल तारा टूट गया होगा
अशफाक उल्लाह की आँखों में लावा फुट गया होगा 
भारत भू पर मरने वाला टोला भी रोया होगा
इन्कलाब का रंग बसंती चोला भी रोया होगा
चुपके चुपके रोया होगा संगम तीरथ का पानी
आंसू आंसू रोई होगी धरती की चुनर धानी
एक समंदर रोई होगी भगत सिंह की कुर्बानी
क्या ये ही सुनने की खातिर फांसी झूले सेनानी
 
जहाँ मरे “आज़ाद” पार्क के पत्ते खड़क गए होंगे
कही स्वर्ग में शेखर जी के बाजू फड़क गए होंगे
शायद पल दो पल को उसकी निद्रा भाग गयी होगी
फिर पिस्तौल उठा लेने की इच्छा जाग गयी होगी 
 
मैं दिनकर की परंपरा का चारण हूँ
भूषण की शैली का लघु उदाहरण हूँ
मैं सूरज का बेटा तम के गीत नहीं गा सकता हूँ
मैं पीड़ा की चीखों में संगीत नहीं ला सकता हूँ 
 
महायज्ञ का नायक “शेखर” गौरव भारत भू का है  
जिसका भारत की जनता से रिश्ता आज लहू का है 
जिसके जीवन के दर्शन ने हिम्मत को परिभाषा दी 
जिसके पिस्टल की गोली ने इन्कलाब को भाषा दी 
जिसने धरा गुलामी वाली क्रांति निकेतन कर डाली 
आज़ादी के हवन कुंड में अग्नि चेतन कर डाली 
जिसकी यश गाथा भारत के घर-घर में नभ चुम्बी है 
जिसकी थोड़ी सी आयु भी कई युगों से लम्बी है 
जिसको खुनी मेहँदी से भी देह रचाना आता था 
आज़ादी का योद्धा केवल चने चबेना खाता था 
अब तो नेता पर्वत, सड़के, नहरों को खा जाते हैं 
नए जिले के शिलान्यास में शहरों को खा जाते हैं ।। 
और ये चार लाइन शेखर जी की पूजा के लिए लिखीं हैं
 
स्वर्ण जयंती वाला जो ये मंदिर खड़ा हुआ होगा ।। 
“शेखर” इसकी बुनियादों के निचे गडा हुआ होगा 
आज़ादी के कारण जो गोरों से कभी लड़ी है रे 
“शेखर” की पिस्तौल किसी तीरथ से बहुत बड़ी है रे ।।
मैं साहित्य नहीं चोटों का चित्रण हूँ
आज़ादी के अवमूल्यन का वर्णन हूँ
मैं अग्निगंधा शबनम की प्रीत नहीं पा सकता हूँ
मैं पीड़ा की चीखों में संगीत नहीं ला सकता हूँ
 
जो भारत माता की जय के नारे गाने वाले हैं
राष्ट्रवाद की गरिमा, गौरव, ज्ञान सिखाने वाले हैं
जो नैतिकता के अवमूल्यन का गम करते रहते हैं
देश धर्म की ठेकेदारी का दम भरते रहते हैं
जो छोटी छोटी बातों पर संसद में अड़ जाते हैं
और शहीदों के मुद्दे पर सडको पर लड़ जाते हैं
 
60 (साठ) दिनों तक स्वर्ण जयंती रथ लेकर जो घूमे हैं
आज़ादी की यादों के पत्थर पूजे हैं चूमे हैं
इस घटना पर चुप बैठे हैं सब के मुंह पर ताले हैं
हम तो समझा करते थे की ये तो हिम्मत वाले हैं ।।
सच्चाई के संकल्पों की कलम सदा ही बोलेगी
वर्तमान के अपराधों को समय तुला पर तोलेगी
 
वर्ना तो साहस कर के दो टूक डांट भी सकते थे
अगर शहीदों पर थूके तो जीभ काट भी सकते थे ।।
 
जलियाँ वाला बाग़ में जो निर्दोषों का हत्यारा था
उस डायर को उधम सिंह ने लन्दन जा कर मारा था 
 
केवल सिंघासन का भाँट नहीं हूँ मैं
वृदावलियो की ही हाट नहीं हूँ मैं
मैं दर्पण हूँ दागी चेहरों को कैसे भा सकता हूँ
मैं पीड़ा की चीखों में संगीत नहीं ला सकता हूँ 
 
जो भारत में पेरियार को पैगम्बर दर्शाती है ।।
वातावरण विषैला कर के मन ही मन मुस्काती है
जो अतीत को तिरस्कार के चांटे देती आई है
वर्तमान को जातिवाद के कांटे देती आई है
जिसने चित्रकूट नगरी का नाम बदल कर डाल दिया
तुलसी की रामायण का सम्मान कुचल कर डाल दिया
जो कल तिलक, गोखले को गद्दार बताने वाली है
खुद को ही आज़ादी का हक़दार बताने वाली है
उससे गठबंधन जारी है .. ये कैसी लाचारी है? ।।
शायद कुर्सी और शहीदों में अब कुर्सी प्यारी है ।।
अंतिम पंक्तियाँ …. मेरा विनम्र प्रणाम उन अमर शहीदों को
जो सीने पर गोली खाने को आगे बढ़ जाते थे ।। 
भारत माता की जय कह कर फांसी पर चढ़ जाते थे 
जिन बेटों ने धरती माता पर कुर्बानी दे डाली 
आज़ादी के हवन कुंड के लिए जवानी दे डाली 
वो देवों की लोक सभा के अंग बने बैठे होंगे 
वो सतरंगे इंद्रधनुष के रंग बने बैठे होंगे ।। 
 
उन बेटों की याद भुलाने की नादानी करते हो 
इन्द्रधनुष के रंग चुराने की नादानी करते हो ।। 
दूर गगन के तारे उनके नाम दिखाई देते हैं 
उनके स्मारक भी चारो धाम दिखाई देते हैं 
जिनके कारण ये भारत आजाद दिखाई देता है 
अमर तिरंगा उन बेटों की याद दिखाई देता है 
उनका नाम जुबां पर लो तो पलकों को झपका लेना ।। 
उनकी यादों के पत्थर पर दो आंसू टपका देना ।। 
जो धरती में मस्तक बो कर चले गए 
दाग गुलामी वाला धो कर चले गए 
मैं उनकी पूजा की खातिर जीवन भर गा सकता हूँ 
मैं पीड़ा की चीखों में संगीत नहीं ला सकता हूँ

श्री हरी ओम पवार जी

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Author: Vyasji

I am a senior retired engineer in USA with a couple of masters degrees. Born and raised in the Vedic family tradition in Bhaarat. Thanks to the Vedic gurus and Sri Krishna, I am a humble Vedic preacher, and when necessary I serve as a Purohit for Vedic dharma ceremonies.

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