भारतीय जनतारूप हनुमानजी, पहचानो अपनी शक्तिको !


भारतीय जनतारूप हनुमानजी, पहचानो अपनी शक्तिको !

 

भारतीय जनतारूप हनुमानजी, पहचानो अपनी शक्तिको

– लीना मेहेंदळे

विश्व में लगभग २००  देश हैं और भारत उनमेंसे मात्र एक देश।

क्या यह कहना सही है?  जी नहीं।

हमें डंकेकी चोट कहना होगा कि विश्वकी जनसंख्या लगभग साढेसात अरब है (७,५० करोड़)  और उसमेंसे करीब डेढ़ अरब अर्थात विश्व-जनसंख्याका पांचवा हिस्सा हमारे पास है और इतनी बड़ी लोकसंख्याके कारण हमें पूरे विश्वमें अपनी बात कह पानेका सामर्थ्य मिलता है।

विश्व में लगभग ५०० विभिन्न संस्कृतियाँ हैं और भारत मात्र उनमेंसे एक संस्कृति।

क्या यह कहना सही है?  जी नहीं। हमें डंकेकी चोट कहना होगा कि हमारी संस्कृति हजारों वर्ष पुरातन है। भारतके विरुद्ध दुर्भावना रखनेवाले इतिहासकार भी इससे इनकार नहीं करते कि  भारतीय संस्कृति कमसे कम ढाई हजार वर्ष पुरातन है। और जो भारतीय संस्कृतिका अच्छी तरह अध्ययन कर नए नए तथ्योंको उकेर रहे हैं,  उनकी मानें तो हमारी संस्कृति कमसे कम १०,००० वर्ष पुरानी है।

तो हमारी इतनी बड़ी जनसंख्या और इतनी प्राचीन विरासतवाली संस्कृति ये दोनों ही हमारे बलस्थान हैं या बोझ इसे हमें पहले तय करना होगा। यदि यह हमारे बलस्थान हैं तो वह भी डंकेकी चोट कहना होगा। एक बात और है कि कोई भी इतनी पुरातन संस्कृति आज पूरे विश्वमें बाकी नहीं बची है। ग्रीक सभ्यता उजड़ गई, रोमन सभ्यता उजड़ गई, मिस्र, माया इन्का इत्यादि सारी संस्कृतियाँ विश्वके प्रांगणसे समाप्त हो चुकी हैं। केवल भारतीय संस्कृति अभी भी दृढरूपसे विद्यमान है। हमने बडे धैर्य व दृढ़तासे अपने ज्ञान, अध्यात्म और विरासतको टिकाकर रखा हुआ है। हमपर बडा उत्तरदायित्व भी है कि हम इसे बचाएं और इससे लाभान्वित हों।

आज विश्व के लगभग २००  देश कोरोनाकी चपेटमें आकर त्राहिमाम् कर रहे हैं और भारत भी उनमें से एक है। साथ ही एक वैैश्विक आर्थिक संकट दरवाजा खटखटा रहा है और भारतभी उसकी चपेटमें आनेवाला है।

क्या यह कहना सही है?  जी नहीं। हमें डंकेकी चोट कहना होगा कि भारत वह देश है जिसने अभी भी बहुत हदतक कोरोनाके दुष्प्रभावको फैलनेसे रोककर रखा हुआ है। और यदि हमने अपने बलस्थानोंको पहचानकर योजनाएँ बनाईं तो हम आगे भी इसके फैलावको बहुत हदतक सीमित रख पाएंगे। इन योजनाओमें विलगाव बनाये रखनेकी नीति अवश्य सफल है। कहाँ इटलीके आंकड़े जिसकी ६ करोड़ जनसंख्यामें लगभग २५००० व्यक्ति कोरोनाके दुष्प्रभावसे मृत हो चुके हैं और करीब डेढ़ लाख व्यक्ति संक्रमित हैं और कहाँ भारतके आंकड़े जिसमें १३५ करोड़की जनसंख्या होते हुए भी संक्रमित लोगोंकी संख्या १५००० और मृत लोगों की संख्या ५०० है। लेकिन भारतकी ही तरह जिन अन्य देशोंने विलगाव-नीतिका पालन किया, जैसे जर्मनी या नीदरलैण्ड, उनकी तुलनामें भी भारतकी स्थिति अधिक अच्छी है।

आज विश्वके सभी प्रगत देश कोरोना वैक्सीनकी खोजमें लगे हुए हैं, उन्हें सफलता मिलेगी — वैक्सीन अवश्य खोज लिया जायगा और फिर विश्वको कोरोनासे मुक्ति मिल जायेगी।

क्या यह कहना सही है?  जी नहीं। आज विश्वके पास प्रगत स्वास्थ्यव्यवस्थाकी एकमात्र पद्धति है कि बिमारीके दृश्य परिणामपर काबू करो। इसीसे विश्वको प्रतीक्षा करनी पड रही बै कि वैक्सीन मिलेगा और कोरोना ठीक होगा, लेकिन तबतक इसके प्रकोपको झेलना होगा। भारतको डंकेकी चोट कहना होगा कि स्वास्थ्यरक्षणकी एक नितांत भिन्न नीति एकमात्र भारत देशके पास है जिसकी सैद्धांतिक पृष्ठभूमि व उपाययोजना दोनों ही वैश्विक ऐलोपथी पद्धतिसे अलग हैं लेकिन वे कारगर हैं और उनके कारण भारत ही नही वरन पूर्ण विश्व इस महामारीसे बच सकता है।

लेकिन उपरोक्त चारों बातें हम तभी कह पायेंगे जब हमें यह भरोसा हो कि हमारी जनसंख्या व हमारी सांस्कृतिक विरासत दोनों हमपर बोझ नही हैं वरन हमारे बलस्थान हैं। क्या हम इस विचारसे सहमत हैं?  यदि हाँ (या ना) तो किसी विचारके प्रति भारतीय समाजका और नीतिनिर्धारण करनेवाली सत्ताप्रणालीका रुख पहचाननेका क्या मापदण्ड होता है? लेकिन इन अंतर्मुखी प्रश्नोंको मैं बादमें उठाना चाहती हूँ, पहले यह चर्चा करती हूँ कि यदि हम जनसंख्या व विरासतको बलस्थान मानते हैं तो कोरोनाके संकटको रोकनेके लिये हमें तत्काल क्या करना चाहिये।

कोरोनाको रोकनेहेतु हमारे पास तीन संसाधन हैं — १. आयुर्वेदका ज्ञान २. हमारे आध्यात्मिक संस्कार और ३. हमारी जनसंख्या। इनके माध्यमसे न केवल भारतको वरन पूरे विश्वको कोरोनासे छुटकारा दिलाया जा सकता है। इनके प्रयोगकी चर्चा पहले करते हैं।

१. आयुर्वेदका ज्ञान — आयुर्वेदका बलस्थान हम दो प्रकारसे उपयोगमें ला सकते हैं। आयुर्वेदका पहला संकल्प है स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणं अर्थात् जो स्वस्थ व्यक्ति है उसे रोग हो ही ना। इसके लिए स्वस्थवृत्तमें कई पद्धतियां दी हुई हैं और स्वस्थवृत्तसे बाहर भी कई पद्धतियोंको हम जानते हैं। आयुर्वेदका दूसरा संकल्प है आतुरस्य विकारप्रशमनं च।  अर्थात् रोग होनेपर चिकित्सा। तो कोरोना जैसे रोगकी चिकित्साके लिए भी आयुर्वेदमें कई तरहकी औषधियोंका वर्णन है। इस ज्ञानका उपयोग करनेका यही उचित अवसर है।

अभी जो केंद्र सरकारने आयुष मंत्रालयको कोरोना संकटसे जूझनेके लिए शामिल किया है इसका थोडासा इतिहास देखते हैं। अब तक केंद्र सरकारके मंत्रालयोंमें स्वास्थ्य-व्यवस्थापनसे संबंधित मंत्रालयका नाम स्वास्थ्य मंत्रालय हुआ करता है। आयुष मंत्रालयका नाम इस प्रकार रखा गया है मानो उसका स्वास्थ्यनीतिनिर्धारणसे कोई लेना देना नहीं है। आयुष मंत्रालयका काम केवल इतना ही था कि जो लोग आयुष पद्धतियोंकी अर्थात् आयुर्वेद, योग, यूनानी,  सिद्ध व होम्योपैथी इत्यादिकी प्रैक्टिस करते हैं उनकी देखभाल या उनकी समस्यानिवारण। किंतु उनकी सहभागिता केंद्र सरकारकी स्वास्थ्यनीतिके निर्धारणमें हो ऐसा आज तक नहीं किया गया था। कोरोना संकटके कारण ही सही लेकिन केंद्र सरकारने इस तथ्यको स्वीकार किया है कि स्वास्थ्य व्यवस्थापनमें भी आयुष मंत्रालयकी भूमिका होती है। तो आयुष मंत्रालयकी और साथ-साथ इन सभी प्रैक्टिशनर्सकी भी यह जिम्मेदारी बनती है कि इस अवसरको खोएं नहीं। अवसरका लाभ उठाते हुए आयुष मंत्रालयने तुरंत एकके बाद एक एडवाइजरी जारी करना आरंभ किया है जिसके अंतर्गत इम्यूनिटी बढ़ानेके कई नुस्खे सुझाए गए हैं और आगे भी सुझाए जाते रहेंगे। अर्थात् आयुर्वेदके पहले संकल्पका पालन – स्वस्थ व्यक्तिकी स्वस्थता बनाये रखनेका संकल्प निभानेकी भूमिका आयुष मंत्रालय आ चुका है। परन्तु यह तो किसी दोहेके एक चरणको कहने जैसा है– तीन चरण अभी बाकी हैं। दूसरा काम जो आयुष मंत्रालय व सभी तज्ज्ञ वैद्य तत्काल कर सकते हैं वह ये कि हमारे नुस्खोंके आधारपर स्वास्थ्यरक्षक दवाइयाँ विश्वभरमें भेजनेका सिलसिला आरंभ करें। सबसे पहले तो जानकारीके लेख प्रिंट कर बाँटें। ये दवाइयाँ गुटी, काढ़ा या टेबलेटके रूपमें छोटे छोटे पॅकिंगमें हो सकती हैं यथा हल्दी-पानी या जीरा-धनियाका काढ़ा या लौंग-सौंठ-मधुका चाटन इत्यादि। अबतक ऐसे उपायोंको विदेशोंमें मान्यता न होनेका बडा कारण यह था कि स्वयं भारत सरकारकी ओरसे इन्हें मान्य करार नहीं दिया गया था। वह व्यवधान अब हट चुका है तो स्वस्थ व्यक्तियोंके लिये आयुष मंत्रालयकी जारी की गई ऐडवाइजरीजको विदेशोंमें भी प्रसारित करवाना चाहियें।

अब आते हैं दूसरे संकल्पपर – आतुरस्य विकारप्रशमनं। यह आयुष मंत्रालयके लिये कसौटीका मुद्दा है क्योंकि रोगग्रस्त व्यक्तिको रोगमुक्त करानेके आयुर्वेदके नुस्खोंपर अभी भी ऐलोपथीका वीटो लगा हुआ है। पहले इस वीटोका मूल आधार कहाँ है इसे समझना पडेगा। विश्वभरमें अत्यधिक धनसत्ता कमानेवाले जितने भी उद्योग हैं, उनमेंसे सबसे बड़े १० उद्योगोंमें फार्मा उद्योग भी एक है। फार्मा उद्योगमें सारे अस्पताल, पॅथोलॉजी लॅब्ज, दवाई एवं उपकरण बनानेवाली कंपनियाँ, एलोपथी पद्धतिसे मेडिकल एज्यूकेशन देनेवाली संस्थाएँ तथा मेडिकल रिसर्चमें काम करनेवाली संस्थाएँ शामिल हैं। इन सबका कुल पैसा इतना है जो भारत जैसे देशके पूरे बजटसे कमसे कम सौ गुना अधिक है। यह पैसा अपनी सत्ताको फैलाना भी जानता है। इसलिए पूरे विश्वमें यह उद्योग चलता है जिसके अंतर्गत अध्ययन और अध्यापनकी व्यवस्था है। हजारों विद्यार्थी हर वर्ष अपनी एलोपैथीकी डिग्री लेकर और उसकी किसी शाखामें प्रवीण होकर निकलते हैं और समाजमें डॉक्टरी करते हैं।

यहाँ मैं किसी भी एलोपैथीके डॉक्टरका व्यक्तिगत दोष नही गिना रही। एलोपैथी भी रोगमुक्तिका एक तरीका होनेके कारण स्वागतार्ह है। लेकिन वह कई तरीकोंमेंसे एक है इस बातको मैं अधोरेखित करना चाहती हूं। फार्मा उद्योग  धनसत्ताका जो जाल बिछाते हैं, वह जाल और उनका धन कमाना तभी संभव हो सकता है जब पूरा विश्व यह मान ले कि उनके तरीकेके सिवा रोगमुक्तिका दूसरा कोई भी उपाय नहीं है। यही कारण है कि चाहे डब्ल्यूएचओ हो या किसी भी देशकी सत्ता हो, लेकिन एलोपैथिसे अलग दूसरी प्रणालीका आगे आना उन्हे मान्य नही।

पिछले २० वर्षोंमें यह स्थिति थोडीसी बदली है। विश्वकी कई संस्थाओंने और विशेषरूपसे डब्ल्यूएचओने स्वीकारा है कि एलोपैथीके सिवा भी रोग मुक्तिके दूसरे तरीके हो सकते हैं जिसे अल्टरनेटिव मेडिसिन कहा गया। लेकिन यह स्वीकृति उन्होंने बड़ी शर्तोंके साथ और अत्यंत छोटे पैमानेपर दी है। उन्होंने इस बातको केवल संभावनाके तौरपर स्वीकारा है तथ्यके तौरपर नहीं। भारतको यह भी समझना पड़ेगा कि डब्ल्यूएचओकी स्वीकृति केवल भारतके कारण नहीं है वरन भारत और चीन दोनोंके संयुक्त कारणसे थी। बड़ी आबादीवाले इन दोनों  देशोंमें अल्टरनेटिव मेडिसिनका चलन व मान्यता है इसलिए डब्ल्यूएचओने उसे स्वीकारा। अब यह ट्रेडीशनल चाइनीज मेडिसिन क्या है और चीनमें उसकी व्याप्ति कितनी है? चीनमें चलनेवाली एमबीबीएसकी पढ़ाईमें ट्रेडीशनल चाइनीज मेडिसिनकी पढाई कंपलसरी है, अर्थात चीनमें ट्रेडीशनल पद्धतिको राजाश्रय है और कोई भी डॉक्टर उसे जानेबिना डॉक्टर बन ही नही सकता। चीनकी स्वास्थ्यनीतिमें पारंपारिक पद्धतिको इतना महत्व दिया गया है इसी कारणसे वैश्विक स्तरपर ट्रेडीशनल चाइनीज मेडिसिन नोबेल पुरस्कारका भी हकदार बना। हालांकि तथ्य तो यह है कि किसी जमानेमें आयुर्वेदके ही सारे सिद्धांत चीनमें अपनाए गए और आजका चीनी ट्रेडीशनल स्वास्थ्य-विचार करीब-करीब उसी ढर्रेपर चलता है जिस ढर्रेपर आयुर्वेद चलता है। दूसरे शब्दोंमें चीनी ट्रेडीशनल मेडिसिनका जनक भी आयुर्वेद ही सिद्ध होता है। फिर भी भारतीय ट्रेडिशनल मेडिकल प्रणालीको अर्थात आयुर्वेदको नोबेल प्राइज नहीं दिया जा सकता लेकिन चीनी ट्रेडिशनल प्रणालीको दिया गया क्योंकि चीनने अपनी प्रणालीको राजाश्रय भी दिया और बेअर-फूट डॉक्टरोंकी जो व्यवस्था चलाई उसमें समाजके स्तरपर ट्रॅडीशनल डॉक्टरोंके पारंपारिक ज्ञानका भरपूर उपयोग किया। यह चर्चा इसलिए आवश्यक है कि ताकि हम अपने आयुर्वेद के महत्व को समझें।

 

फार्मा कंपनियोंका जो धनतंत्र है उसमें भी चीनने अपनी पैठ बनाई है। कई दिग्गज कंपनियोंकी बेसिक दवाइयां आज चीनसे ही मंगाई जाती हैं। इस प्रकार चीनने एलोपैथी और ट्रेडिशनल मेडिसिन दोनों ही प्रणालियोंका महत्व समझा। एक ओर उसने अपनी स्वास्थ्य प्रणालीको भी सुधारा तो दूसरी ओर पश्चिमि फार्मा कंपनियोंके तंत्रको समझकर  धन भी बटोरा।

अब भारतको देखते हैं। आज भारतमें करीब १० लाख एलोपैथी डॉक्टर हैं और लगभग १ लाख विदेशोंमें बसे हुए हैं। उनकी पढ़ाईका खर्च भी अत्यधिक होता है क्योंकि मेडिकल कॉलेज चलानेवाली जितनी शैक्षिक संस्थाएं हैं वे भी उसी धनसत्तातंत्रका एक हिस्सा बनी हुई हैैं। लेकिन एलोपैथीका अध्ययन करनेवाले विद्यार्थीके लिये यह चिन्ताका विषय नही है। एक बार डॉक्टर बन जानेपर वे भारतमें हों या विदेशमें, पर उनकी कमाई बहुत अच्छेसे हो जाती है। वे इतनी संपत्ति, यश, नाम और कीर्ति कमा सकते हैं कि भारतकी पूरी शिक्षा प्रणालीमें सबसे अच्छे विद्यार्थी एलोपथी साइंसकी ओरही मुड़ते हैं। इसके बावजूद एलोपैथीके रिसर्चके नाम पर भारत करीब-करीब शून्यकी अवस्थामें है। अर्थात् एक राष्ट्रके तौरपर एलोपैथिके माध्यमसे हम और हमारे डॉक्टर पैसे तो बहुत कमा रहे हैं लेकिन चिकित्सा पद्धतिमें भारत नया कुछ भी नही दे पाता है क्योंकि तमाम रिसर्च पश्चिमी देशोंकी फार्मा संस्थाओंके हाथमें है। हमारी सरकारी नीति या आयसीएमार जैसी संस्थाएँ भी यही कहती हैं कि जब हर नई एलोपैथी तकनीक हम तत्काल भारतमें ऐडॉप्ट कर लेते हैं तो अपने यहाँ नये रिसर्चमें झक मारनेकी क्या जरूरत? इस मनोवृत्तिके कारण हमारे डॉक्टर्स अच्छे रोग-उपचारक तो हो जाते हैं परन्तु चिन्तनशील, प्रयोगशील या सत्यान्वेषी नही हो पाते जो एक प्रबुद्ध राष्ट्रचेतनाका गुणविशेष होता है।

फार्मा उद्योगके सत्तातंत्रका एक और पहलू है, उसकी भी चर्चा कर लेते हैं। इस सत्तातंत्रके लिए यह संभव है और उचित भी माना गया है कि यह कोई दवाई बनाएं और उसकी बिक्री बढ़ानेहेतु कोई बीमारी भी फैलाएं। ऐसी संभावना विश्व में कई बार व्यक्त हो चुकी है। पिछले ६ महीनेमें चीनने जो कुछ किया, और पूरे विश्वमें कोरोना फैलाया, उसकी चर्चा आज बड़े जोरसे हो रही है। पश्चिमी देश इसे चीनी षड्यंत्र बता रहे हैं। इसके पहले भी जब स्वाइन फ्लूका संक्रमण हुआ था या फिर मर्स या सार्स या एचआईवीका संक्रमण हुआ था, तब भी विश्व समुदायने यह चिंता जताई थी कि क्या ये नैसर्गिक बिमारियां हैं या इन्हें लाया गया है? लेकिन वे रोग सीमित रहे और वह चर्चा भी।

आज कोरोनाके कारण यह चर्चा हमारी देहरीतक पहुंच गई है और इसने हम सबको सोचनेके लिए मजबूर कर दिया है। इसीलिये अब भारतियोंको ही आगे आकर कहना पड़ेगा, विश्वको यह संदेश देना पड़ेगा कि जिसे अल्टरनेटिव मेडिसिन कहकर तुच्छता दर्शाई, उस ट्रॅडिशनल भारतीय आयुर्वेदको अब रोगकी रोकथाममें भी उपयोग लाओ। भारत है हनुमान जिसे यह बताना पडता है कि उठो और अपने सामर्थ्यका उपयोग करो।

लेकिन यहाँ दो अत्यंत महत्वके प्रश्न उठ खडे होते हैं। पहला प्रश्न जो साहस, ज्ञान और नैतिकता इन तीनोंके एकत्रित प्रयोगसे ही हल हो सकता है – वह ये कि भारतमें सही अर्थोंमें आयुर्वेदके ज्ञाता कितने हैं? यहाँ मैं आयुर्वेद शब्दमें होम्यापॅथी, यूनानी, योगचिकित्सक आदि आयुषकी अन्य प्रणालियोंको भी जोड रही हूँ क्योंकि उन सबकी कुल संख्या १ लाखसे कम ही है। तो देशमें लगभग १० लाख आयुर्वेदकी डिग्रीधारी वैद्य तो अवश्य हैं लेकिन उनमेंसे जिन्हें चिन्तनशील व प्रयोगशील कहा जा सके, जो शोधपरक बुद्धि और दृष्टि रखते हैं, ऐसे बहुत कम ही हैं। इतने कम कि यदि वे एकत्रित होकर विचारमंथन नही करते तो विश्वभरमें आयुर्वेदको पुनर्स्थापित करनेका कोरोनाका दिया हुआ यह सुअवसर वे गँवा देंगे। इसीलिये यहाँ देशके सरकारकी और आयुष विभागकी भूमिका अहम् हो जाती है कि वे इन आयुर्वेद एक्पर्ट्सको एकत्रित करें और विचारमंथनपूर्वक कोरोना रोगनिवारक प्रोटोकोल तय कर उसे घोषित करें। यह हमारे दोहेके तीसरे चरण जैसा होगा। ऐसा होनेपर ही हम चौथे चरणमें पहुँचकर विश्वसे आग्रहपूर्वक इसे अपनानेको कह सकते हैं। जब हम वह कहनेको अपनी तरफसे तैयार होंगे जब विश्वसे यह बात मनवानेमें हमारी विशाल जनसंख्या हमारे लिये एक बडा संबल बनेगी क्योंकि इतनी बडी जनसंख्यामें करोडों लोग ऐसे हैं जो आयुर्वेदकी क्षमता व सुप्रभावसे परिचित हैं और उनका मत विश्वस्तरपर बहुत अर्थवान हो जोता है।

और अब आते हैं सबसे कठिन प्रश्नपर। कोरोनाविरुद्ध आयुर्वेदकी इस लडाईमें हमारे आयुर्वेद एक्सपर्ट्सके पास आत्मबल कितना है? यहाँ मैं ज्ञानबलकी बात नही कर रही, वरन उस आत्मबलकी बात कर रही हूँ जो हमारी अतिप्राचीन विरासतमें विश्वास होनेपर आता है। इसी कारण प्रारंभमें ही मैंने यह पूछा था कि हमारी इतनी प्राचीन विरासतवाली संस्कृति हमारा बलस्थान है या बोझ? क्या हम इस विरासतको जल्दीसे जल्दी झटककर उससे मुक्ति चाहते हैं या उस विरासतको रक्षणीय मानते हुए उससे आत्मबल पाते हैं? यदि हमें इस विरासत और इस ज्ञानपर भरोसा है तो आयुर्वेदके बचावहेतु एक लक्ष्मणरेषाका ध्यान सदैव रखना होगा कि हम अपना ज्ञान एलोपैथीके शब्दप्रयोगोंके साथ या एलोपैथीके सिद्धान्तोंमें ढालकर समझानेका प्रयास कदापि न करें। यदि हमें विश्वको बताना है कि गरम पानीमें हल्दी मिलाओ तो अपने अंगरेजी पॅम्प्लेटमें भी हम टर्मेरिक नही कहेंगे- हल्दी ही कहेंगे। यदि हमें अश्वगंधा, गिलोय, तुलसी आदिके विषाणु-निरोधक गुणोंकी चर्चा करनी हो तो हम उनके लॅटिन नामोंसे अपने शोधलेखोंका आरंभ नही करेंगे और ना ही उन्हें आरएनए-डीएनएकी भाषामें समझायेंगे। हम उन्हें आयुर्वेदके सिद्धांत, जैसे त्रिदोष, पंचमहाभूतात्मक शरीर, पंचकोष आदि शब्दप्रयोगोंके साथ ही बखानेंगे। तभी हम देशभरमें बिखरे हुए उन आधे-एक लाख जानकार आयुर्वेदाचार्योंके ज्ञानका लाभ उठा पायेंगे।  तभी इस ज्ञानको धनसत्ताके संबलपर होनेवाली वैश्विक ज्ञानलूट, प्लेजरायझेशन या डायजेशनसे बचा पायेंगे। पिछली कई सदियोंसे भारतीय ज्ञानकी लूट हो रही है और पश्चिमि विद्वान उसे नाम बदलकर, और स्वयंका आविष्कार बताकर पेश करते हैं। पश्चिमि कृपाकटाक्ष और संपत्तिके मोहमें हमारे विद्वान् स्वयं इस लूटमें सहायक बन रहे हैं। यहाँ यह लिख देना सरल है कि हमारे आयुर्वेदाचार्य ऐसा न करें। परन्तु मैंने कईयोंके मुखसे सुना कि उनकी भाषा, उनकी टर्मिनॉलॉजी, उनकी व्याख्याके अनुरूप अपना प्रोटोकोल नही बनाया तो वे इसे स्वीकार नही करेंगे। इस वे शब्दमें हमारे ही देशकी आयसीएमआर जैसी संस्था और सायन्स ऐण्ड टेक्नोलॉजी जैसे मंत्रालय भी अनजानेमें शामिल हैं क्योंकि उनकी अपनी शिक्षा भी पश्चिमि प्रणालीमें ही हुई है।  अर्थात् कहीं न कहीं हम अपनेको मजबूर पाते हैं और उस मजबूरीके प्रति समर्पण करके अपनेको अधिकाधिक मजबूर बनाते हैं। दूसरी ओर अपने ज्ञानभाण्डारको देखें तो उसमें तबतक वृद्धि या नये सिद्धांत नही आ सकते जबतक उसपर हमारा अनवरत विचारमंथन न चलता हो और हम नये विचारोंसे उसका शब्दभाण्डार न बढाते हों। यह तथ्य हमें नही भूलना चाहिये कि हमारी शब्दावलीही हमारे ज्ञानकी रक्षक हो सकती है।

आयुर्वेदाचार्योंका आत्मबल तभी बढ सकेगा जब देशके वे सारे लोग उनके पक्षमें खडे हो जायें जिन्होंने जीवनमें कभी भी आयुर्वेदके नुस्खोंसे कोई लाभ पाया हो, और जिनका अपने आध्यात्मिक संस्कारोंपर विश्वास हो। हम न भूलें कि ये संस्कार भी  स्वास्थ्यरक्षणमें महत्वकी भूमिका निभाते हैं। हमारा आरंभिक संस्कार कहता है — शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्। इसीलिये इस लडाईमें हमारी विरासत, हमारे संस्कार और हमारे जनसंख्याबलका महत्व अत्यधिक है।

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Author: Vyasji

I am a senior retired engineer in USA with a couple of masters degrees. Born and raised in the Vedic family tradition in Bhaarat. Thanks to the Vedic gurus and Sri Krishna, I am a humble Vedic preacher, and when necessary I serve as a Purohit for Vedic dharma ceremonies.

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