॥श्रद्धा – अंध श्रद्धा के बारे मे॥
by Suresh Vyas
जहां पांच इन्द्रियां और अपनी बुद्धि व तर्क से नहि समझा जाता उसको सत्य मानना वो श्रद्धा है। कोई अन्य व्यक्ति को वो अन्ध श्रद्धा लग शकती है। और जिसको आज एक बात में श्रद्धा है उसको बादमे ज्ञान व समज भी हो शकती है कि वो उसकी अन्ध श्रद्धा थी , और ये भी ज्ञान हो शकता है कि जो उसकी श्रद्धा थी वो सत्य है।
नास्तिक लोग दो प्रकार के होते है। एक वो है जिन्हों ने ठान किया है कि भगवान नहि है। उनको भगवान होने का कुछ भी प्रमाण दो वो मानेगे नहि और विवाद करते रहेन्गे। दूसरे नास्तिक वो है जो भगवान को देख ले या कोई चमत्कार का अनुभव कर लें तो मान जायेन्गे कि भगवान है।
भगवद् गीता मे कृष्ण भगवान ने अपने बारेमे बहूत बताया है। वो ही भगवान सबके हृदय मे परमात्मा के नामसे है और वो जीव-आत्मा के सब विचार इच्छा व कर्म को देख रहा है। ये भगवान के गुणधर्म व कर्म-लीला सामान्य मनुष्य की समज से बाहर है। जै से की :-
भगवान सदा है। ना उसका जन्म है ना उसका मरण है। सारे विश्व या ब्रह्माण्ड का नाश हो जाने के बाद भी भगवान रहता है। भगवान सर्वज्ञ है, सर्वव्यापी है, सर्व शक्तिमान है ,परमकृपालु है, साकर है, और कोई भी आकार ले शकते है। वो एक ही समय बहूत स्थान पर प्रगट हो शकते है। भगवानकी गति को कोई रोक नहि शकता। भबवान प्रकृति के आधीन नहि है बल्कि प्रकृति भगवान के आधीन है। कर्म के बन्धन भगवान को नहि है।
कोई सामन्य मनुष्य भगवान जैसा नहि है। कोई बडे सन्त साधू योगी को भगवान कुछ सिद्धि देते है। जो लोग मानते है कि कोई चमत्कार नहि होते है वो सच जानने के लिये पण्डित दिरेन्द्र कृष्ण शास्त्री के दरबार म जाये और सीधा अनुभव कर लो भगवान क्या होता है। भगवान भूत भविष्य व वर्तमान सब कुछ जानता है।
तो कोई ये मानता है कोई नहि मानता है। भगवान ने सब को क्या शोचना क्या मानना वो आझादी दी है।
अपने अपने कर्म का फल सबक् भुगतना होता है।
तो किसी को भगवान के बारे मे श्रद्धा है किसी को नहि है।